शनिवार, 18 अक्तूबर 2014

जो प्रयासरत हैं हिंदी के लिए उन्हें जानिए



अति आवश्यक है अंग्रेजी, छोटे छोटे बच्चे जब धाराप्रवाह अंग्रेजी में बातचीत करते हैं तो हम विभोर हो जाते हैं, बड़े कहते हैं - "उसके सामने मत कहो कि हमें अंग्रेजी नहीं आती"  … समझ में नहीं आता कि यह मान लेने से हमारा अपमान है या बच्चे का।  अलग बात है कि हम ये कह देते हैं कि हिंदी नहीं आती।  हिंदी के शब्द सुनकर कह देते हैं कि भाई इतनी हिंदी हमें नहीं आती !
ज़रूरी है कि जो आज भी प्रयासरत हैं हिंदी के लिए उन्हें हम जानें -


हो कभी ना मन विकल..!!


जब आज है सुंदर सृजन,  
मन घूमता है क्यों विकल?
तम को ह्रदय में बांध जड़, 
लखता नहीं क्यों ज्योति पल?

पलकों तले संसार रच
ढल गए दो-चार पल, 
आँखें ठगी-सी रह गयीं
देख विधि का कलित छल।


एक मीठी रागिनी में
सुर उठे जब दूर से, 
बंध गए विश्वास  सारे
सरगमों में गूंज के।

गुनगुनी सी धूप सिमटी
सांझ ने करवट बदल ली, 
कालिमा दर पर्त पसरी
नींद आँखों में कसकती।

राह में हैं शूल चुभते
फूटते हैं पग के छाले, 
रिस भी जाती है बिवाई 
आह सी मिलती कमाई।

टिमटिमा कर रात रोती 
पंखुरी भरती  है साखी,
पूछ लो धरती-गगन से 
राह वह चलती ही जाती।

चक्र वर्तुल काल का है
भूत से भवितव्य तक, 
रख धनात्मक भाव, री सखि!
हो कभी ना मन विकल..!!


बहिर्मुखी दृष्टि


किसी गाँव में एक बुढ़िया रात के अँधेरे में अपनी झोपडी के बहार कुछ खोज रही थी। तभी गाँव के ही एक व्यक्ति की नजर उस पर पड़ी , "अम्मा! इतनी रात में रोड लाइट के नीचे क्या ढूंढ रही हो ?", व्यक्ति ने पूछा। "कुछ नहीं! मेरी सूई गुम हो गयी है, बस वही खोज रही हूँ।", बुढ़िया ने उत्तर दिया।

फिर क्या था, वो व्यक्ति भी महिला की मदद में जुट गया और सूई खोजने लगा। कुछ देर में और भी लोग इस खोज अभियान में शामिल हो गए और देखते- देखते लगभग पूरा गाँव ही इकठ्ठा होकर, सूई की खोज में लग गया। सभी बड़े ध्यान से सूई ढूँढने में लगे हुए थे कि तभी किसी ने बुढ़िया से पूछा ,"अरे अम्मा ! ज़रा ये तो बताओ कि सूई गिरी कहाँ थी?"

"बेटा , सूई तो झोपड़ी के अन्दर गिरी थी।", बुढ़िया ने ज़वाब दिया। ये सुनते ही सभी बड़े क्रोधित हो गए। भीड़ में से किसी ने ऊँची आवाज में कहा, "कमाल करती हो अम्मा ,हम इतनी देर से सूई यहाँ ढूंढ रहे हैं जबकि सूई अन्दर झोपड़े में गिरी थी, आखिर सूई वहां खोजने की बजाए, यहाँ बाहर क्यों खोज रही हो ?" बुढ़िया बोली, " झोपडी में तो धुप्प अंधेरा था, यहाँ रोड लाइट का उजाला जो है, इसलिए।”

मित्रों, हमारी दशा भी इस बुढिया के समान है। हमारे चित्त की शान्ति, मन का आनन्द तो हमारे हृदय में ही कहीं खो गया है, उसे भीतर आत्म-अवलोकन के द्वारा खोजने का प्रयास होना चाहिए। वह श्रम तो हम करते नहीं, क्योंकि वहाँ सहजता से कुछ भी नजर नहीं आता, बस बाहर की भौतिक चकाचौंध में हमें सुख और आनन्द मिल जाने का भ्रम लगा रहता है। शायद ऐसा इसलिए है कि अन्तर में झांकना बडा कठिन कार्य है, वहां तो हमें अंधकार प्रतीत होता है, और चकाचौंध में सुख खोजना बडा सहज ही सुविधाजनक लगता है। किन्तु यथार्थ तो यह है कि आनन्द जहां गुम हुआ है उसे मात्र वहीं से ही पुनः प्राप्त किया जा सकता है।

आनन्द अन्तर्मन में ही छुपा होता है। बाहरी संयोगों का सुख, केवल और केवल मृगतृष्णा है। यदि हृदय प्रफुल्लित नहीं तो कोई भी बाहरी सुख-सुविधा हमें प्रसन्न करने में समर्थ नहीं। और यदि मन प्रसन्न है, संतुष्ट है तो कोई भी दुविधा हमें दुखी नहीं कर सकती।

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